यह पहाड़ की चोटी से गिरता जाता है। वह जैसे जैसे गिरता है, उसपर और बर्फ चिपकती जाती है। इससे वह बड़ा बनता जाता है। निवेश भी उसी प्रकार बढ़ते हैं। मान लीजिये आपने निवेश किया → उसपर आपको ब्याज मिला → जो निवेश के साथ ही जुड़ गया → अब उस निवेश और जुड़े हुए ब्याज पर आपको और ब्याज मिलेगा। इस ब्याज पर ब्याज मिलने की क्रिया को कम्पाउंडिंग कहते हैं।
मान लीजिए की आपके पास एक मुर्गी है। अब वह मुर्गी अंडे दे रही है।
तो यह मुर्गी हुई आपका निवेश। अब, उन अण्डों में से चूज़े निकले हैं। यह चूज़े हुए आपका ब्याज (यानी निवेश से हुआ आपका मुनाफा।)
तो, यह चूज़े भी बड़े होकर अंडे देंगे, जिसमे से और चूज़े बनेंगे। अब, यह हुआ ब्याज पर मिलने वाला ब्याज। (यानी मुनाफे पर मिलने वाला मुनाफा)
आइए कुछ नम्बरों की सहायता लें। 1 मुर्गी = निवेश 2 चूज़े = ब्याज चूज़े बड़े हुए और उनमे से एक मुर्गी बानी।
अब, आपके पास 2 मुर्गियां हो गई हैं। 2 मुर्गी = निवेश + ब्याज वह चार अंडे दे रही हैं। 4 चूज़े = निवेश और ब्याज पर ब्याज।
मान लीजिए की आपने बैंक RD में ₹10,000 का निवेश किया है। इस निवेश का सालाना रिटर्न 5 प्रतिशत है।
इस तरह, जितने वर्षों तक आप निवेश करेंगी, उतना ही कम्पाउंडिंग आपके निवेशों को बढ़ाने में मदद करेगा। जितने ज़्यादा वर्ष उतनी ज़्यादा कम्पाउंडिंग।
तो अब बताइए, क्या ज़्यादा लाभदायक है?
धीरे धीरे निवेश कर चीज़ें खरीदना, या फिर क़र्ज़ लेकर तुरंत चीज़ें खरीदना? निवेश करना हमेंशा आपको क़र्ज़ लेने से ज़्यादा आर्थिक लाभ दे सकता है।
लेकिन, कुछ आर्थिक लक्ष्य जैसे घर खरीदने के लिए अधिक पैसों की ज़रुरत पड़ती है। तो ऐसे लक्ष्यों के लिए आपको निवेश करने के बावजूद क़र्ज़ लेना ही पड़ेगा। बाकी सारे आर्थिक लक्ष्यों के लिए, निवेश और अपनी ख़रीददरियों को टालने से आपको काफी लाभ हो सकता है।